राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’

    0
    323

    दिल्ली, मिथिला मिरर-सुनीत ठाकुर: “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है,” दिनकर जी के लिखल इ पंक्ति कोनो आंदोलन के शिखर पर पहुँचाबय लेल बहुत अछि। मिथिला रत्न रामधारी सिंह दिनकर जी के जन्म बेगुसराय जिला के सिमरिया गांव (मिथिलांचल के प्रसिद्ध तीर्थ सिमरिया घाट ) में 23 सितम्बर, 1908 में भेल छल। मैथिली, हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला और उर्दू के विद्वान दिनकर जी राजनीति विज्ञान , इतिहास और दर्शन शास्त्र के विद्यार्थी छलाह। विभिन्न पद पर काज केलाक संग, मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष आ भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहलाह। आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि दिनकर जी ‘राजेंद्र प्रसाद ‘, अनुग्रह नारायण सिंह ,ब्रज किशोरी प्रसाद के बहुत करीबी छलाह। बाद में गांधी जी सअ सेहो प्रभावित भेलाह, संगहि रविन्द्र नाथ टैगोर सअ सेहो प्रभावित भेलाह। 1952 सअ 1964 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहलाह। 1959 में पद्मभूषण और साहित्य अकादमी अवार्ड (संस्कृति के चार अद्ध्याय ), 1972 में ज्ञानपीठ पुरस्कार (उर्वशी) के अलावा भागलपुर यूनिवर्सिटी द्वारा LLD डिग्री और गुरुकुल महाविद्यालय द्वारा उपाधि “विद्यावाचस्पति ” मुख्य पुरस्कार छल। दिनकर जी के सम्मान में 2008 में संसद के सेंट्रल हॉल में हिनकर पोट्रेट लगायल गेल , 1999 में डाकटिकट निकालल गेल , पटना में ‘दिनकर चौक’ पर प्रतिमा सेहो लगायल गेल।

    लेखक , कवि ,निबंधकार “दिनकर जी” के प्रमुख रचना में , कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी, हुंकार, संस्कृति के चार अध्याय, परशुराम की प्रतीक्षा, हाहाकार, चक्रव्यूह, आत्मजयी, वाजश्रवा के बहाने ,मिथिला में शरत आदि प्रमुख छल। 24 अप्रैल, 1974 के मद्रास में हिनकर देहांत भअ गेल। दिनकर जी के लिखल ‘ मिथिला में शरत ‘ के किछ पंक्ति याद आबि रहल अछि , सुनल जाऊ……

    शारद निशि की शोभा विशाल, जगती, ज्योत्स्ना का स्वर्ण-ताल,
    श्यामल, शुभ शस्यों का प्रसार, गंडक, मिथिला का कंठहार।
    चन्द्रिका-धौत बालुका-कूल, कंपित कासों के श्वेत फूल;
    वह देख-देख हर्षाती है, कुछ छिगुन-छिगुन रह जाती है।।
    मिथिला विमुक्त कर हृदय-द्वार है लुटा रही सौन्दर्य प्यार;
    कोई विद्यापति क्यों न आज , चित्रित कर दे छवि गान-व्याज?
    कोई कविता मधु-लास-मयी, अविछिन्न, अनन्त विलास-मयी,
    चाँदनी धुली पी हरियाली, बनती न हाय, क्यों मतवाली?
    शेखर की याद सताती है, वह छिगुन-छिगुन रह जाती है।।
    हे जन्मभूमि! शत बार धन्य ! तुझ-सा न ‘सिमरियाघाट’ अन्य।
    तेरे खेतों की छवि महान, अनिमन्त्रित आ उर में अजान,
    भावुकता बन लहराती है, फिर उमड़ गीत बन जाती है।।

    साभार: मिथिलाक संस्कृति